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जिसे भी मौका मिला उसने इतिहास रच दिया! वो चाहे 1950 में बी आर अम्बेडकर हो या फिर 2025 में दक्षिण अफ्रीका के टेस्ट क्रिकेट कप्तान टेंबा बावुमा, भेदभाव नें टैलेंट पर कसा शिकंजा

देश में सदियों से चले आ रहे भेद-भाव को लेकर लोगों की सोच पर एक और जोरदार झटका लगा है. जिनको यह लगता है कि जातिवाद या काला-गोरा किसी टैलेंट से उपर है उनपर दक्षिण अफ्रीका की टेस्ट क्रिकेट टीम और उनके अश्वेत समुदाय के कप्तान ने जोरदार तमाचा जड़ा है. 26 जनवरी 1950 में भारत का संविधान लागू किया गया. भारतीय संविधान के जनक बी आर अम्बेडकर को माना जाता है. अम्बेडकर की प्रतिभा और देश के प्रति उनकी सोंच पर आज भी सवाल किए जाते रहे हैं. 

आये दिन भारत में आज भी दलितों के उपर दुनिया भर के अत्याचार झेलने को मिलते है. सरकारी दफ्तर तो छोड़ो निजीकरण की दुनिया में भी उनको (दलितों) को खुद को प्रमाणित करना पड़ता है. दलितों को उनके जाति (सरनेम) के आधार पर नौंकरियां दी जा रही हैं. दलितों की योग्यता उनके जाति के आधार पर तय किया जाता है, वहीं श्रवण जाति के लोगों के लिए उनकी योग्यता उनकी जाति (सरनेम) ही है. जिस देश में मात्र 2% सरकारी नौकरियां है, वहीं 98% पर निजीकर का कब्जा हो वहां पर भेदभाव हाबी नही होगा तो आखिर क्या होगा? 

भारत वह देश है जहां पर संविधान लागू होने से पहले मनु स्मृति के आधार पर वर्णों को बांट दिया गया था. भारत के नागरिकों को कुल चार वर्णों में बांट कर उन पर हुक्म चलाया जाता आ रहा था. मनु स्मृति के मुताबिक भारत में चार वर्ण ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और सूत्र सामिल है. हिंदू प्रथा के मुताबिक किसी भी दलित को मंदिर में जाने का कोई अधिकार नहीं था, पढाई-लिखाई का कोई अधिकार नहीं था, दलित महिलाओं को स्तन ढकने का भी अधिकार नहीं था. सूत्रों के गले मे मटका और उनके पीछे झाडू बांधा जाता था, ताकि जिस रास्ते से श्रवण जाए वो जगर अपवित्र न हो जाए. भारत में लगभग 500 साल से शिक्षा का अधिकार ब्राम्हणों का था. देश में लगभग 85% दलित, ओवीसी और मुश्लिस समुदाय के लोग रहते हैं, लेकिन देश के 90 फीसदी सुविधाओं पर सिर्फ और सिर्फ श्रवण जातियों का ही कब्जा है. 

26 जनवरी 1950 को देश में संविधान लागू होने के बाद कहने के लिए समानता तो आ गई है, लेकिन लोगों की मानसिकता में तनिक भी बदलाव नहीं देखा जा रहा है. आज के दिन में देश में एसे दलित हैं जिनके पास घर बमाने के लिए जमीन तक नहीं है. सरकारें दलितों और पिछडों को सिर्फ और सिर्फ वोट बैंक के तौर पर आंक रही है. देश के पुलिस चौकियों पर आज भी पंडित जी और ठाकुर जी के फोन काॅल्स ही काफी हैं. कौन कहता है कि देश में समानता आ गई है ? जहां पर अभी भी एक समुदाय को खुद को प्रूफ करने के लिए जंग लड़नी पड़ती हैं वह चाहे कितना भी पढा-लिखा हो. यही क्रूर समाज उनको आगे बढने से रोकता है. आखिर कहां है समानता ? किसी की थाली में खाना खा लेने से क्या भेदभाव खत्म हो जाता है ?  

बी आर अम्बेडकर के इतने संघर्षों के बाद भी आज भारत में उनके विरोधी (पंड़ित & ठाकुर) उनका बड़े पुरजोर तरीके से विरोध करते हैं. आखिर क्यों ? शायद इस लिए कि उनके विरोधी (पंड़ित & ठाकुर) दलितों पिछड़ों पर उस तरीके अत्याचार नहीं कर पा रहे हैं? देश की कुरीतियों को ठीक करने वाले अम्बेडकर और गांधी के प्रति लोगों के मन में आज भी कुंठा की भावना है. लंदन एक ऐसा देश जिसने अम्बेडकर को सिंबल ऑफ नाॅलेज मानता है, वहीं दूसरी तरफ उनके ही देश भारत में उनको मानना और उनकी प्रतिमा लगाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. 

दक्षिण अफ्रीका में जातिवाद तो नहीं था लेकिन वहां पर गोरे और काले के प्रति भेद भाव था. दक्षिण अफ्रीका में गोरे और काले लोगों के बीच संघर्ष मुख्य रूप से रंगभेद (Apartheid) की नीति के कारण था। यह एक ऐसी प्रणाली थी जिसमें नस्ल के आधार पर लोगों को अलग-अलग किया जाता था और अश्वेत लोगों के साथ भेदभाव किया जाता था. 1948 से 1990 के दशक की शुरुआत तक, रंगभेद ने दक्षिण अफ्रीका में कानूनी रूप से लागू किया था. 

रंगभेद के दौरान, अश्वेत लोगों को कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, जैसे कि: 

शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और नौकरियों में भेदभाव.

अलग-अलग क्षेत्रों में रहने के लिए मजबूर होना.

राजनीतिक अधिकारों से वंचित होना.

संसद में कोई प्रतिनिधित्व नहीं.

रंगभेद के खिलाफ कई आंदोलन हुए, जिनमें से सबसे प्रमुख नेल्सन मंडेला और अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी) थे. 1990 के दशक की शुरुआत में, रंगभेद विरोधी आंदोलन और अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद समाप्त हो गया और एक बहु-जातीय लोकतंत्र की स्थापना हुई. 

नेल्सन मंडेला ने रंगभेद के खिलाफ लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उन्हें 1993 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया

दक्षिण अफ्रीका में रंग-भेद के बीच क्रिकेट में आरक्षण: 

रंगभेद से पर्रभावित दक्षिण अफ्रीका की नेशनल टीम में आरक्षण को लागू कर दिया गया. इसके तहत टीम में अब गोरे खिलाड़ियों की संख्या पांच से अधिक नहीं होगी. नश्लीय भेदभाव को दूर करने के लिए दक्षिण अफ्रीका की नेशनल टीम में आरक्षण को लागू किया गया. आरक्षण के मुताबिक कम से कम 6 अस्वेत खियाड़ी सामिल होंगे. विश्व टेस्ट चैंपियन शिप में दक्षिण अफ्रीका की तरफ से कप्तान टेंबा बावुमा, कगीसो रबाड़ा, लुंगी इंगीड़ी ने कमाल का प्रदर्शन किया है. 

कप्तान टेंबा बावुमा ने लंगड़ाते हुए क्रीज पर खड़े रहे और 134 गेंद खेल कर 66 रन की कमाल की पारी खेली, वहीं एडन मार्करम ने अपने करियर की सबसे बड़ी और कमाल की पारी खेल कर सभी को चौका दिया. एडन मार्करम ने 207 गेंद पर 136 रन की धाकर पारी खेल कर मानों ऑस्ट्रेलिया की कमर तोड़ दी हो. एडन मार्करम और कप्तान टेंबा बावुमा की पारी ने दक्षिण अफ्रीका को 27 साल बाद खुश होने का मौंका दिया. मार्करम को प्लेयर ऑफ द मैंच चुना गया. 

यह सही है कि भेदभाव तले टैलेंट खत्म हो जाता है! 




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